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और फिर चाँद निकलता है - मोहम्मद अनवर ख़ालिद कविता - Darsaal

और फिर चाँद निकलता है

और फिर चाँद निकलता है

और फिर सारा शहर सिमट कर तेरे घर का आँगन बन जाता है

और शाम से पहले सो जाने वाले बच्चे जाग उठते हैं

और मैं तेरे साथ न जाने किस किस घर में जाता हूँ

किन किन लोगों से मिलता हूँ

और तू साथ नहीं होता है

और में तन्हा ही रहता हूँ

और यूँ पिछली रात का पीला चाँद मिरी दहलीज़ पे कच्चा सोना बिखराता है

भूले-बिसरे चेहरे आँखें मलते उठते हैं

और मैं ठंडे दरवाज़े से लग कर सो जाता हूँ

अगले दिन मैं खो जाता हूँ

और फिर चाँद निकलता है

और फिर सारा शहर सिमट कर तेरे घर का आँगन बन जाता है

और फिर मैं सो जाता हूँ

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