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कभी महर-ओ-माह-ओ-नुजूम से कभी कहकशाँ से गुज़र गया - मोहम्मद अमीर आज़म क़ुरैशी कविता - Darsaal

कभी महर-ओ-माह-ओ-नुजूम से कभी कहकशाँ से गुज़र गया

कभी महर-ओ-माह-ओ-नुजूम से कभी कहकशाँ से गुज़र गया

मैं तिरी तलाश में आख़िरश हद-ए-ला-मकाँ से गुज़र गया

ये तफ़ाउत-ए-सनम-ओ-हरम है तभी कि जब भी नशा हो कम

जो भी ग़र्क़-ए-बादा-ए-हक़ हुआ ग़म-ए-ईन-ओ-आँ से गुज़र गया

कभी शहर-ए-हुस्न-ए-ख़याल से कभी दश्त-ए-हुज़्न-ओ-मलाल से

तिरे इश्क़ में तेरे प्यार में मैं कहाँ कहाँ से गुज़र गया

तिरी रहगुज़र मिरी रहगुज़र तिरे नक़्श-ए-पा मिरी राह पर

तू जहाँ जहाँ से गुज़र गया मैं वहाँ वहाँ से गुज़र गया

रह-ए-ज़िंदगी में मक़ाम वो मुझे बार-हा मिले दोस्तो

कि ख़िरद का पाँव फिसल गया है जुनूँ जहाँ से गुज़र गया

मिरा जिस्म क्या मिरी रूह क्या नहीं कोई ज़ख़्मों की इंतिहा

ऐ 'अमीर' तीर-ए-निगाह-ए-हुस्न कहाँ कहाँ से गुज़र गया

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