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कटती है कोई दम यहीं औक़ात मज़े की - मोहम्मद अमान निसार कविता - Darsaal

कटती है कोई दम यहीं औक़ात मज़े की

कटती है कोई दम यहीं औक़ात मज़े की

दुनिया में अजब जा है ख़राबात मज़े की

कहता है मुबारक कोई कहता है सलामत

है रूठ के मिलना भी मुलाक़ात मज़े की

आगे तो ये चुप-चाप का मज़कूर नहीं था

होती थी कई ढब से इनायात मज़े की

बूमा है न गाली है न चश्मक-ज़दनी है

क्या है जो नहीं आज इशारात मज़े की

होने दे ख़याल उस का 'निसार' और तरफ़ टुक

बोसे की लगा रक्खी है मैं घात मज़े की

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