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दोस्ती चाह दिली मेहर-ओ-मोहब्बत गुज़री - मोहम्मद अमान निसार कविता - Darsaal

दोस्ती चाह दिली मेहर-ओ-मोहब्बत गुज़री

दोस्ती चाह दिली मेहर-ओ-मोहब्बत गुज़री

सीधे मुँह बात भी करता नहीं रुत गुज़री

एक मिस्रा जो पढ़ा वस्फ़-ए-क़द-ए-यार में हम

सर्व के सर पे गुलिस्ताँ में क़यामत गुज़री

हम-नशीं पूछ न कुछ चुप ही भली है उस से

शब-ए-फ़ुर्क़त में जो कुछ हम पे सऊबत गुज़री

सुब्ह को नाम किसी ने जो लिया इस का यहाँ

दिल-ए-मुश्ताक़ पे बे-तरह की हालत गुज़री

आँख हम से जो मिलाता नहीं वो आईना-रू

ख़ाकसारों से ये क्या दिल में कुदूरत गुज़री

कभू लड़ता था कभू हँस के लिपट जाता था

क्यूँ 'निसार' उस से अजब रातों की सोहबत गुज़री

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