अब जिधर भी जाते हैं

पहले ऐसा होता था

भाँत भाँत के बंदर

शहर की फ़सीलों पर

महफ़िलें जमाते थे

घर में कूद आते थे

हाथ में से बच्चों के

रोटी नोच जाते थे

अब तो वो मदारी भी

ख़ाली हाथ आता है

भीक माँग कर घर घर

घर को लौट जाता है

अब घरों में चिड़ियों का

शोर क्यूँ नहीं होता

रात को कोई उल्लू

पेड़ पर नहीं रोता

पेड़ पर नहीं रोता

लड़ते लड़ते चिड़ियाँ क्यूँ

फ़र्श पर नहीं गिरतीं

बिल्लियाँ छतों पर क्यूँ

घूमती नहीं फिरतीं

अब न कोई बुलबुल है

और न कोई मैना है

अब न कोई तीतर है

और न कोई तोता है

किस से पूछने जाएँ

मोर कैसा होता है

टोलियाँ कबूतर की

खो गईं फ़ज़ाओं में

तितलियों के रंगीं पर

बह गए हवाओं में

मुँह-अँधेरे अब मुर्ग़ा

बाँग क्यूँ नहीं देता

घर में कोई बकरी का

नाम क्यूँ नहीं लेता

क्या हुए दरख़्तों पर

घोंसले परिंदों के

कोई भी नहीं कहता

क़िस्से अब दरिंदों के

नन्हे नन्हे चूज़ोंं पर

चील का झपटना अब

देखने कहाँ जाएँ

रास्ते में साँडों का

पहरों लड़ते रहना अब

देखने कहाँ जाएँ

छिपकिली की जीती दुम

अब थिरकती क्या पाएँ

रंग बदलते गिरगिट को

मारते कहाँ जाएँ

गाए भैंस का रेवड़

अब इधर नहीं आता

ऊँट टेढ़ा-मेढ़ा सा

अब नज़र नहीं आता

अब न घोड़े हाथी हैं

और न वो बराती हैं

अब गली में कुत्तों का

भौंकना नहीं होता

रात छत पे सोते हैं

भूत देख कर कोई

चौंकना नहीं होता

अब जिधर भी जाते हैं

आदमी को पाते हैं

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