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यक्का उलट के रह गया घोड़ा भड़क गया - मोहम्मद अल्वी कविता - Darsaal

यक्का उलट के रह गया घोड़ा भड़क गया

यक्का उलट के रह गया घोड़ा भड़क गया

काली सड़क पे चाँद सा चेहरा चमक गया

देखा उसे तो आँख से पर्दा सरक गया

शो'ला सा एक जिस्म के अंदर लपक गया

बाहर गली में खिल गईं कलियाँ गुलाब की

झोंका हवा का आते ही कमरा महक गया

मुझ पर नज़र पड़ी तो वो शर्मा के रह गई

पहलू से उस के ऊन का गोला लुढ़क गया

कोशिश के बावजूद मैं बाहर न आ सका

अंदर का सिलसिला तो बहुत दूर तक गया

मैं ने ही उस को क़त्ल किया था ये सच है पर

सच सच बताऊँ मेरा भी इक इक पे शक गया

'अल्वी' ने आज दिन में कहानी सुनाई थी

शायद इसी वजह से मैं रस्ता भटक गया

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