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सोचते रहते हैं अक्सर रात में - मोहम्मद अल्वी कविता - Darsaal

सोचते रहते हैं अक्सर रात में

सोचते रहते हैं अक्सर रात में

डूब क्यूँ जाते हैं मंज़र रात में

किस ने लहराई हैं ज़ुल्फ़ें दूर तक

कौन फिरता है खुले-सर रात में

चाँदनी पी कर बहक जाती है रात

चाँद बन जाता है साग़र रात में

चूम लेते हैं किनारों की हदें

झूम उठते हैं समुंदर रात में

खिड़कियों से झाँकती है रौशनी

बत्तियाँ जलती हैं घर घर रात में

रात का हम पर बड़ा एहसान है

रो लिया करते हैं खुल कर रात में

दिल का पहलू में गुमाँ होता नहीं

आँख बन जाती है पत्थर रात में

'अल्वी' साहब वक़्त है आराम का

सो रहो सब कुछ भुला कर रात में

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