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हुआ चली तो मिरे जिस्म ने कहा मुझ को - मोहम्मद अल्वी कविता - Darsaal

हुआ चली तो मिरे जिस्म ने कहा मुझ को

हवा चली तो मिरे जिस्म ने कहा मुझ को

अकेला छोड़ के तू भी कहाँ चला मुझ को

मैं कब से ढूँढता फिरता हूँ अपनी क़िस्मत को

ये तेरे हाथ में क्या है ज़रा दिखा मुझ को

दहकती जलती हुई दोपहर मिली लेकिन

किसी दरख़्त का साया न मिल सका मुझ को

मैं अपने रूम की बत्ती जलाए बैठा हूँ

अरे ये शाम से पहले ही क्या हुआ मुझ को

बला के शोर में डूबी हुई सदा हूँ मैं

किसी से क्या कहूँ मैं ने भी कब सुना मुझ को

वो कोई और है 'अल्वी' जो शे'र कहता है

तुम इस के जुर्म की देते हो क्यूँ सज़ा मुझ को

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