हर-चंद जागते हैं प सोए हुए से हैं
हर-चंद जागते हैं प सोए हुए से हैं
सब अपने अपने ख़्वाबों में खोए हुए से हैं
मैं शाम के हिसार में जकड़ा हुआ सा हूँ
मंज़र मिरे लहू में डुबोए हुए से हैं
महसूस हो रहा है ये फूलों को देख कर
जैसे तमाम रात के रोए हुए से हैं
इक डोर ही है दिन की महीनों की साल की
इस में कहीं पे हम भी पिरोए हुए से हैं
'अल्वी' ये मो'जिज़ा है दिसम्बर की धूप का
सारे मकान शहर के धोए हुए से हैं
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