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दिन इक के बा'द एक गुज़रते हुए भी देख - मोहम्मद अल्वी कविता - Darsaal

दिन इक के बा'द एक गुज़रते हुए भी देख

दिन इक के बा'द एक गुज़रते हुए भी देख

इक दिन तू अपने आप को मरते हुए भी देख

हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर

मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख

हाँ देख बर्फ़ गिरती हुई बाल बाल पर

तपते हुए ख़याल ठिठुरते हुए भी देख

अपनों में रह के किस लिए सहमा हुआ है तू

आ मुझ को दुश्मनों से न डरते हुए भी देख

पैवंद बादलों के लगे देख जा-ब-जा

बगलों को आसमान कतरते हुए भी देख

हैरान मत हो तैरती मछली को देख कर

पानी में रौशनी को उतरते हुए भी देख

उस को ख़बर नहीं है अभी अपने हुस्न की

आईना दे के बनते-सँवरते हुए भी देख

देखा न होगा तू ने मगर इंतिज़ार में

चलते हुए समय को ठहरते हुए भी देख

तारीफ़ सुन के दोस्त से 'अल्वी' तू ख़ुश न हो

उस को तिरी बुराइयाँ करते हुए भी देख

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