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और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी - मोहम्मद अल्वी कविता - Darsaal

और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी

और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी

उस के रहे हो के हम जिस से मोहब्बत न थी

इतने बड़े शहर में कोई हमारा न था

अपने सिवा आश्ना एक भी सूरत न थी

इस भरी दुनिया से वो चल दिया चुपके से यूँ

जैसे किसी को भी अब उस की ज़रूरत न थी

अब तो किसी बात पर कुछ नहीं होता हमें

आज से पहले कभी ऐसी तो हालत न थी

सब से छुपाते रहे दिल में दबाते रहे

तुम से कहें किस लिए ग़म था वो दौलत न थी

अपना तो जो कुछ भी था घर में पड़ा था सभी

थोड़ा बहुत छोड़ना चोर की आदत न थी

ऐसी कहानी का मैं आख़िरी किरदार था

जिस में कोई रस न था कोई भी औरत न थी

शेर तो कहते थे हम सच है ये 'अल्वी' मगर

तुम को सुनाते कभी इतनी भी फ़ुर्सत न थी

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