क्या कहा फिर तो कहो दिल की ख़बर कुछ भी नहीं
क्या कहा फिर तो कहो दिल की ख़बर कुछ भी नहीं
फिर ये क्या है ख़म-ए-गेसू में अगर कुछ भी नहीं
आँख पड़ती है कहीं पाँव कहीं पड़ता है
सब की है तुम को ख़बर अपनी ख़बर कुछ भी नहीं
शम्अ' है गुल भी है बुलबुल भी है परवाना भी
रात की रात ये सब कुछ है सहर कुछ भी नहीं
हश्र की धूम है सब कहते हैं यूँ है यूँ है
फ़ित्ना है इक तिरी ठोकर का मगर कुछ भी नहीं
नीस्ती की है मुझे कूचा-ए-हस्ती में तलाश
सैर करता हूँ उधर की कि जिधर कुछ भी नहीं
शम्अ' मग़रूर न हो बज़्म-ए-फ़रोज़ी पे बहुत
रात-भर की ये तजल्ली है सहर कुछ भी नहीं
एक आँसू भी असर जब न करे ऐ 'तिश्ना'
फ़ाएदा रोने से ऐ दीदा-ए-तर कुछ भी नहीं
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