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जतन करता तो हूँ लेकिन ये बीमारी नहीं जाती - मोहम्मद अली साहिल कविता - Darsaal

जतन करता तो हूँ लेकिन ये बीमारी नहीं जाती

जतन करता तो हूँ लेकिन ये बीमारी नहीं जाती

जो मेरे ख़ून में शामिल है ख़ुद-दारी नहीं जाती

ये उस का काम है फ़िरक़ा-परस्ती छोड़ दे कैसे

सियासत कुछ भी कर ले उस की मक्कारी नहीं जाती

वो बूढ़ा शख़्स अपनी जान तक नीलाम कर बैठा

मगर अफ़्सोस उस के घर की दुश्वारी नहीं जाती

सुलाया है फ़क़त पानी पिला कर उस ने बच्चों को

हैं आँसू ख़ुश्क लेकिन उस की सिसकारी नहीं जाती

मिरी ग़म-ख़्वार ये दुनिया न हो तो ग़म नहीं 'साहिल'

मिरी फ़ितरत में शामिल है ये ग़म-ख़्वारी नहीं जाती

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