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ऐसा नहीं सलाम किया और गुज़र गए - मोहम्मद अली साहिल कविता - Darsaal

ऐसा नहीं सलाम किया और गुज़र गए

ऐसा नहीं सलाम किया और गुज़र गए

जब भी मिले किसी से तो दिल में उतर गए

ज़ुल्म-ओ-सितम के आगे कभी जो झुके नहीं

उन के नसीब उन के मुक़द्दर सँवर गए

किरदार बेच देने का अंजाम ये हुआ

दिल में उतरने वाले नज़र से उतर गए

कुछ कैफ़ियत अजीब रही अपनी दोस्तो

की दोस्ती किसी से तो हद से गुज़र गए

बच्चों की भूक माँ की दवा और हाथ तंग

ये मरहले भी हम को गुनहगार कर गए

कुछ ज़िंदगी तो मुझ से मसाइल ने छीन ली

जो बच गई थी हादसे बर्बाद कर गए

'साहिल' जब उन को कोई ठिकाना नहीं मिला

ग़म उन के सारे मेरे ही दिल में ठहर गए

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