सुकूत-ए-शाम समुंदर परिंदगाँ सूरज
सुकूत-ए-शाम समुंदर परिंदगाँ सूरज
ये लम्हा लम्हा बदलता हुआ जहाँ सूरज
फ़सील-ए-शहर-ए-शिकस्ता के मिट गए आसार
गुज़िश्ता अहद की कहता है दास्ताँ सूरज
समुंदरों के सफ़र पर हुए रवाना जब
हमारे साथ चला मिस्ल-ए-बादबाँ सूरज
वो मौजें मारता दरिया या रेग-ए-सहरा है
अजीब ढंग से लेता है इम्तिहाँ सूरज
ज़मीं पे रंग हैं जितने सभी इसी से हैं
हमारे सर पे चमकता है मेहरबाँ सूरज
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