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तिश्ना-लब हूँ मुद्दतों से देखिए - मोहम्मद अली जौहर कविता - Darsaal

तिश्ना-लब हूँ मुद्दतों से देखिए

तिश्ना-लब हूँ मुद्दतों से देखिए

कब दर-ए-मय-ख़ाना-ए-कौसर खुले

ताक़त-ए-परवाज़ ही जब खो चुकी

फिर हुआ क्या गर हवा में पर खुले

चाक कर सीने को पहलू चीर डाल

यूँ ही कुछ हाल-ए-दिल-ए-मुज़्तर खुले

रात तलछट तक न छोड़ी तब कहीं

राज़-हा-ए-बादा-ओ-साग़र खुले

लो वो आ पहुँचा जुनूँ का क़ाफ़िला

पाँव ज़ख़्मी ख़ाक मुँह पर सर खुले

हूँ जो कसरत ही के क़ाइल उन पे क्या

राज़-ए-फ़तह-ए-सिब्त-ए-पैग़म्बर खुले

रू-नुमाई के लिए लाया हूँ जाँ

अब तो शायद चेहरा-ए-अनवर खुले

अब तो कश्ती के मुआफ़िक़ है हवा

नाख़ुदा क्या देर है लंगर खुले

ये नज़र-बंदी तो निकली रद्द-ए-सेहर

दीदा-हा-ए-होश अब जा कर खुले

अब कहीं टूटा है बातिल का तिलिस्म

हक़ के उक़दे अब कहीं हम पर खुले

अब हुआ है मा-सिवा का पर्दा फ़ाश

मअरिफ़त के अब कहीं दफ़्तर खुले

फ़ैज़ से तेरे ही ऐ क़ैद-ए-फ़रंग

बाल ओ पर निकले क़फ़स के दर खुले

जीते जी तो कुछ न दिखलाया मगर

मर के 'जौहर' आप के जौहर खुले

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