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क़ैद और क़ैद भी तन्हाई की - मोहम्मद अली जौहर कविता - Darsaal

क़ैद और क़ैद भी तन्हाई की

क़ैद और क़ैद भी तन्हाई की

शर्म रह जाए शकेबाई की

सूझता क्या हमें उन आँखों से

शर्त थी क़ल्ब की बीनाई की

दर-ए-बुत-ख़ाना से बढ़ने ही न पाए

गरचे इक उम्र जबीं-साई की

क़ैस को नाक़ा-ए-लैला न मिला

गो बहुत बादिया-पैमाई की

हम ने हर ज़र्रे को महमिल पाया

है ये क़िस्मत तिरे सहराई की

वक़्फ़ है उस के लिए जान-ए-अज़ीज़

काबे के ख़ादिम ओ शैदाई की

काबा ओ क़ुद्स में घर किया ये भी

इक अदा है मिरे हरजाई की

नज़र आया हमें हर चीज़ में तू

उस पे ये धूम है यकताई की

इश्क़ और जौर-ए-सितमगर का गिला

हद है ऐ दिल यही रुस्वाई की

इश्क़ को हम ने किया नज़्र-ए-जुनूँ

उम्र भर में यही दानाई की

कर गई ज़िंदा-ए-जावेद हमें

तेग़-ए-क़ातिल ने मसीहाई की

हो न तक़लीद दिला मक़्तल में

कहीं मूसा से तमन्नाई की

न सही तेग़ तजल्ली ही सही

आँख झपके न तमाशाई की

कल को है फिर वही ज़िंदाँ 'जौहर'

ठीक किया आप से सौदाई की

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