किस से आज़ुर्दा मिरे क़ातिल का ख़ंजर हो गया
किस से आज़ुर्दा मिरे क़ातिल का ख़ंजर हो गया
क्या हुआ जो आज यूँ जामे से बाहर हो गया
मेरा शोहरा आज इक आलम में घर घर हो गया
तेरे हाथों मुझ को क़ातिल ये मयस्सर हो गया
क्यूँ नहीं मिलता अभी तक तिश्ना-लब हैं बादा-ख़्वार
क्या तिरा साग़र भी साक़ी जाम-ए-कौसर हो गया
इस क़दर वहशत भी ऐ दस्त-ए-जुनूँ किस काम की
तेरे हाथों मेरा जीना भी तो दूभर हो गया
जोश-ए-वहशत का इरादा था कि उर्यां ही रहे
बारे मर कर इक कफ़न मुझ को मयस्सर हो गया
उस की रुस्वाई का भी आया न तुझ को कुछ ख़याल
किस क़दर बेबाक तू ऐ दीदा-ए-तर हो गया
मुज़्दा ऐ गंज-ए-शहीदाँ तेरे भी दिन फिर गए
आज दिल-बर्दाश्ता दुनिया से 'जौहर' हो गया
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