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किस से आज़ुर्दा मिरे क़ातिल का ख़ंजर हो गया - मोहम्मद अली जौहर कविता - Darsaal

किस से आज़ुर्दा मिरे क़ातिल का ख़ंजर हो गया

किस से आज़ुर्दा मिरे क़ातिल का ख़ंजर हो गया

क्या हुआ जो आज यूँ जामे से बाहर हो गया

मेरा शोहरा आज इक आलम में घर घर हो गया

तेरे हाथों मुझ को क़ातिल ये मयस्सर हो गया

क्यूँ नहीं मिलता अभी तक तिश्ना-लब हैं बादा-ख़्वार

क्या तिरा साग़र भी साक़ी जाम-ए-कौसर हो गया

इस क़दर वहशत भी ऐ दस्त-ए-जुनूँ किस काम की

तेरे हाथों मेरा जीना भी तो दूभर हो गया

जोश-ए-वहशत का इरादा था कि उर्यां ही रहे

बारे मर कर इक कफ़न मुझ को मयस्सर हो गया

उस की रुस्वाई का भी आया न तुझ को कुछ ख़याल

किस क़दर बेबाक तू ऐ दीदा-ए-तर हो गया

मुज़्दा ऐ गंज-ए-शहीदाँ तेरे भी दिन फिर गए

आज दिल-बर्दाश्ता दुनिया से 'जौहर' हो गया

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