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डर नहीं मुझ को गुनाहों की गिराँ-बारी का - मोहम्मद अली जौहर कविता - Darsaal

डर नहीं मुझ को गुनाहों की गिराँ-बारी का

डर नहीं मुझ को गुनाहों की गिराँ-बारी का

तेरी रहमत है सबब मेरी सुबुकसारी का

दार ने इक सग-ए-दुनिया को ये बख़्शा है उरूज

है फ़रिश्तों में भी चर्चा मिरी दीं-दारी का

दिल ओ जाँ सौंप चुके हम तुझे ऐ जान-ए-जहाँ

अब हमें ख़ौफ़ ही क्या अपनी गिरफ़्तारी का

जान भी चीज़ है कोई कि रखें तुम से दरेग़

पास इतना भी न हो रस्म-ए-वफ़ादारी का

साक़िया सब को तिरी एक नज़र काफ़ी थी

था किसे होश तिरे अहद में हुश्यारी का

मैं फ़िदा आज भी हो जाए वही एक निगाह

ख़ात्मा हो कहीं इस दौर की ख़ुद्दारी का

आशिक़ों के लिए है दार ही दारु-ए-शिफ़ा

इश्क़ की तिब में दवा नाम है बीमारी का

अजल इस्तादा है बालीं पे मरीज़-ए-ग़म-ए-इश्क़

आँख तो खोल ज़रा वक़्त है बेदारी का

'जौहर' और हाजिब ओ दरबाँ की ख़ुशामद क्या ख़ूब

अर्श ओ कुर्सी पे गुज़र है तिरे दरबारी का

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