तसल्ली
उतरती रात के ज़ीने से लग कर सोचता हूँ
सुब्ह जब होगी
मैं अपनी जुस्तुजू में चल पड़ूँगा
साअतों के टूटते सहरा से निकलूँगा
नई मंज़िल नया जादू उजाला ही उजाला
दूर तक इंसानियत का बोल-बाला
ख़याल अच्छा है ख़ुद को भूल जाने का
चलो यूँ भी तो कर देखें
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