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मता-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता समेट कर ले जा - मोहम्मद अली असर कविता - Darsaal

मता-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता समेट कर ले जा

मता-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता समेट कर ले जा

जो हो सके तो मिरा दर्द अपने घर ले जा

तू जा रहा है तो मेरी सिसकती आँखों से

सुलगती शाम पिघलती हुई सहर ले जा

उचटती आँखों से तहज़ीब का सफ़र कैसा

तू अपने-आप को तारीख़ के उधर ले जा

हुज़ूर-ए-दोस्त इक आईना जगमगाता है

तू अपनी ज़ात का पैकर तराश ले कर ले जा

सुलग रही है तिरी याद मिरी रग रग में

अब अपनी याद मिरे दिल से छीन कर ले जा

'असर' के पास तो कुछ भी नहीं हुनर के सिवा

तू बे-हुनर है तो सरमाया-ए-हुनर ले जा

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