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ग़ज़ल-मिज़ाज है यकसर ग़ज़ल का लहजा है - मोहम्मद अली असर कविता - Darsaal

ग़ज़ल-मिज़ाज है यकसर ग़ज़ल का लहजा है

ग़ज़ल-मिज़ाज है यकसर ग़ज़ल का लहजा है

सरापा जैसे नज़ाकत का इस्तिआरा है

क़दम क़दम पे चराग़ों की साँस रुकती है

कि अब तो शहरों में जीना अज़ाब लगता है

झुलसती शाम बदलने लगी है पैराहन

तिरे बदन की तमाज़त में सेहर कैसा है

शगुफ़्ता हर्फ़-ए-नवा अजनबी से लगते हैं

उदास लफ़्ज़ों से अपना क़दीम रिश्ता है

न मौसमों में महक है न रत-जगों में असर

तुम्हारे शहर का मौसम भी कितना फीका है

चहार-सम्त ख़यालों की रेत बिखरी हुई

हमारी प्यास का मंज़र ये रेग-ए-सहरा है

अब अपनी तिश्ना-लबी पर न जाइएगा 'असर'

समुंदरों का मुहाफ़िज़ भी आज प्यासा है

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