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आवाज़ों के जंगल में सुनाई नहीं देता - मोहम्मद अली असर कविता - Darsaal

आवाज़ों के जंगल में सुनाई नहीं देता

आवाज़ों के जंगल में सुनाई नहीं देता

वो भीड़ है चेहरा भी सुझाई नहीं देता

आफ़ाक़ की वुसअ'त में बिखरने को हूँ बेचैन

क्यूँ जिस्म के ज़िंदाँ से रिहाई नहीं देता

वो हक़्क़-ए-रिफ़ाक़त की रिवायत का अमीं है

वो हक़ भी तो इक भाई को भाई नहीं देता

पड़ जाए अगर वक़्त तो इस दौर में कोई

पर्बत तो बड़ी बात है राई नहीं देता

बारिश में भी वो भीगता रहता है ख़ुशी से

आँधी में भी वो पेड़ दुहाई नहीं देता

बे माँगे भी दे देता है शाही जिसे चाहे

और माँगने वाले को गदाई नहीं देता

वो शख़्स जो रहता है 'असर' आँख में हर-दम

हैरत है कि ख़ुद मुझ को दिखाई नहीं देता

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