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इक शख़्स जज़ीरा राज़ों का और हम सब उस में रहते हैं - मोहम्मद अजमल नियाज़ी कविता - Darsaal

इक शख़्स जज़ीरा राज़ों का और हम सब उस में रहते हैं

इक शख़्स जज़ीरा राज़ों का और हम सब उस में रहते हैं

इक घर है तन्हा यादों का और हम सब उस में रहते हैं

इक मौसम हरे परिंदों का वो सर्द हवा का रिज़्क़ हुआ

इक गुलशन ख़ाली पेड़ों का और हम सब उस में रहते हैं

इक आँख है दरिया आँखों का हर मंज़र उस में डूब गया

इक चेहरा सहरा चेहरों का और हम सब उस में रहते हैं

इक ख़्वाब ख़ज़ाना नींदों का वो हम सब ने बर्बाद किया

इक नींद ख़राबा ख़्वाबों का और हम सब उस में रहते हैं

इक लम्हा लाख ज़मानों का वो मस्कन है वीरानों का

इक अहद बिखरते लम्हों का और हम सब उस में रहते हैं

इक रस्ता उस के शहरों का हम उस की धूल में धूल हुए

इक शहर उस की उम्मीदों का और हम सब उस में रहते हैं

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