तुम आ गए हो तुम मुझ को ज़रा सँभलने दो
अभी तो नश्शा सा आँखों में इंतिज़ार का है
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चार-सू सैल-ए-सिपाह-ए-मह-ओ-अख़्तर तेरा
उस का तरकश ख़ाली होने वाला है
कौन पूछे मुझ से मेरी गोशा-गीरी का सबब
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर
पल पल मिरी ख़्वाहिश को फिर अंगेज़ किए जाए
उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना
लफ़्ज़-ओ-बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
तैरता मौज-ए-हवा सा आसमानों में कहीं
अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़
अब वो मोड़ आया कि हर पल मो'तबर होने को है