तुम आ गए हो तो मुझ को ज़रा सँभलने दो
अभी तो नश्शा सा आँखों में इंतिज़ार का है
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जुलूस-ए-तेग़-ओ-अलम जाने किस दयार का है
छोड़ गया वो नक़्श-ए-हुनर अपना तुग़्यानी में
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या
मेरे लहू की सरशारी क्या उस की फ़ज़ा भी कितनी देर
तैरता मौज-ए-हवा सा आसमानों में कहीं
चार-सू सैल-ए-सिपाह-ए-मह-ओ-अख़्तर तेरा
लफ़्ज़-ओ-बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
मुहीत-ए-पाक पे मौज-ए-हुनर में रौशन हूँ
ये ज़ाद-ए-राह किसी मरहले में रख देना
मेरे लिए क्या शोर भँवर का क्या मौजों की रवानी