'रम्ज़' अधूरे ख़्वाबों की ये घटती बढ़ती छाँव
तुम से देखी जाए तो देखो मुझ से न देखी जाए
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हर्फ़ को लफ़्ज़ न कर लफ़्ज़ को इज़हार न दे
ख़ला में हो इर्तिआश जैसे कुछ ऐसा मंज़र है और मैं हूँ
अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़
उस का तरकश ख़ाली होने वाला है
थी मिरी हम-सफ़री एक दुआ उस के लिए
ख़ूब है इश्वा ये उस का ये इशारत उस की
नवाह-ए-दिल में ये मेरी मिसाल जलते रहें
उस पार बनती मिटती धनक उस के नाम की
न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
घुट के मर जाने से पहले अपनी दीवार-ए-नफ़स में दर निकालो
छोड़ गया वो नक़्श-ए-हुनर अपना तुग़्यानी में
उस के जुनूँ का ख़्वाब है किन ताबीरों में