कौन पूछे मुझ से मेरी गोशा-गीरी का सबब
कौन समझे दर कभी दीवार कर लेना मिरा
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सुलगने राख हो जाने का डर क्यूँ लग रहा है
लफ़्ज़-ओ-बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना
उस पार बनती मिटती धनक उस के नाम की
मेरे लहू की सरशारी क्या उस की फ़ज़ा भी कितनी देर
क्या अब मिरी कहानी में
पल पल मिरी ख़्वाहिश को फिर अंगेज़ किए जाए
थी मिरी हम-सफ़री एक दुआ उस के लिए
लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से
नवाह-ए-दिल में ये मेरी मिसाल जलते रहें
शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या
फिर इक तीर सँभाला उस ने मुझ पे नज़र डाली