जैसे ख़ला के पस-मंज़र में रंग रंग के नक़्श-ओ-निगार
बातें उस की वज़्न से ख़ाली लहजा भारी-भरकम है
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Allama Iqbal
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Wasi Shah
Parveen Shakir
Rahat Indori
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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सुलगने राख हो जाने का डर क्यूँ लग रहा है
ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर
फिर इक तीर सँभाला उस ने मुझ पे नज़र डाली
उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना
अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़
अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
इक सच की आवाज़ में हैं जीने के हज़ार आहंग
सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू
चार-सू सैल-ए-सिपाह-ए-मह-ओ-अख़्तर तेरा
मेरे लिए क्या शोर भँवर का क्या मौजों की रवानी
और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ