हर्फ़ को लफ़्ज़ न कर लफ़्ज़ को इज़हार न दे
कोई तस्वीर मुकम्मल न बना उस के लिए
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तैरता मौज-ए-हवा सा आसमानों में कहीं
जुलूस-ए-तेग़-ओ-अलम जाने किस दयार का है
थी मिरी हम-सफ़री एक दुआ उस के लिए
अभी रंग-ए-रब्त अयाँ है क़ौस-ए-ख़याल से
और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ
ये ज़ाद-ए-राह किसी मरहले में रख देना
लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से
फिर इक तीर सँभाला उस ने मुझ पे नज़र डाली
नवाह-ए-दिल में ये मेरी मिसाल जलते रहें
अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया
सुलगने राख हो जाने का डर क्यूँ लग रहा है
सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू