इक सच की आवाज़ में हैं जीने के हज़ार आहंग
लश्कर की कसरत पे न जाना बैअत मत करना
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थी मिरी हम-सफ़री एक दुआ उस के लिए
लफ़्ज़-ओ-बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
ख़ला में हो इर्तिआश जैसे कुछ ऐसा मंज़र है और मैं हूँ
तुम आ गए हो तो मुझ को ज़रा सँभलने दो
ये ज़ाद-ए-राह किसी मरहले में रख देना
कौन पूछे मुझ से मेरी गोशा-गीरी का सबब
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया
ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर
जैसे ख़ला के पस-मंज़र में रंग रंग के नक़्श-ओ-निगार
जुलूस-ए-तेग़-ओ-अलम जाने किस दयार का है
सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू