और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ
ज़ेहन में फिर इक सम्त बिखेरी राहगुज़र डाली
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बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले
सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू
भटक जाएगा दिल अय्यारी-ए-इदराक से निकलें
न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
जुलूस-ए-तेग़-ओ-अलम जाने किस दयार का है
इक गहरी चुप अंदर अंदर रूह में उतरी जाए
शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या
ख़ूब है इश्वा ये उस का ये इशारत उस की
लफ़्ज़-ओ-बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
तुम आ गए हो तुम मुझ को ज़रा सँभलने दो
फिर इक तीर सँभाला उस ने मुझ पे नज़र डाली
अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़