अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया
उस के होंटों पर चाहत का फूल खिला भी कितनी देर
Javed Akhtar
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सुलगने राख हो जाने का डर क्यूँ लग रहा है
दिए मुंडेरों के रौशन क़तार होने लगे
अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़
लफ़्ज़-ओ-बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
तैरता मौज-ए-हवा सा आसमानों में कहीं
न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या
मेरे लिए क्या शोर भँवर का क्या मौजों की रवानी
उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना
उस का तरकश ख़ाली होने वाला है
ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर
पल पल मिरी ख़्वाहिश को फिर अंगेज़ किए जाए