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ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर - मोहम्मद अहमद रम्ज़ कविता - Darsaal

ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर

ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर

बेच रहा हूँ जिंस-ए-दिल-ओ-जाँ सौदा कर

मेरी ख़ल्वत कुछ हंगामे रखती है

और भी लोग आते हैं तू भी आया कर

अपनी निस्बत का एज़ाज़ न मुझ से छीन

जितना जी चाहे तू मुझ को रुस्वा कर

तुझ को अपने साथ डुबोने वाला मैं

मेरे लिए एक एक से तू मत उलझा कर

मैं भी देखूँ तीर पे रम ज़ंजीर पे रक़्स

कुछ तो वहशत मेरे ग़ज़ाल-ए-रअना कर

घोल दे हिज्र के रंगों में कुछ दिल का लहू

कोई नक़्श तो उस की याद का ज़िंदा कर

देख अपनी आँखों से रवाँ अस्र-ए-उम्र

'रम्ज़' अपने कुफ़्र-ए-अना से तौबा कर

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