सुलगने राख हो जाने का डर क्यूँ लग रहा है

सुलगने राख हो जाने का डर क्यूँ लग रहा है

दहकती आग सा गर्दन पे सर क्यूँ लग रहा है

लहू से आबयारी करने वालो कुछ तो सोचो

ये सारा बाग़ बे-बर्ग-ओ-समर क्यूँ लग रहा है

परिंद-ए-फ़िक्र पर हैं सख़्त क्यूँ उस की उड़ानें

मुसाफ़िर आज बे-सम्त-ओ-सफ़र क्यूँ लग रहा है

ये किस ख़्वाहिश का मद्द-ओ-जज़्र हैं मेरी निगाहें

मुझे सारा समुंदर इक भँवर क्यूँ लग रहा है

अभी रौशन हैं कुछ नक़्श-ओ-निगार-ए-ख़ुद-फ़रेबी

महल उस की रिफ़ाक़त का खंडर क्यूँ लग रहा है

मुझे किस मौज में लाया है इस्तिग़राक़ मेरा

मैं जिस क़तरे को छूता हूँ गुहर क्यूँ लग रहा है

मैं हूँ उस पार उभरते डूबते मंज़र में जैसे

इधर जो होने वाला था उधर क्यूँ लग रहा है

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