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शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या - मोहम्मद अहमद रम्ज़ कविता - Darsaal

शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या

शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या

लम्स आँखों को बदन का ज़ाइक़ा देने से क्या

हो चुकी है गुम सदा-ए-बाज़गश्त-ए-ग़ैब भी

पत्थरों को अब कोई नक़्श-ए-नवा देने से क्या

धुँद की गहरी तहों में सारे पैकर दफ़्न हैं

अपनी बिछड़ी साअ'तों को अब सदा देने से क्या

इक निहाल-ए-ख़स्ता की सूरत खड़ा हूँ राह में

मुझ को आने वाली रुत का आसरा देने से क्या

कौन समझेगा मुझे तस्वीर अधूरी छोड़ दूँ

रंग कोई दायरा-दर-दायरा देने से क्या

एक दिन खा जाएगी मौसम की संगीनी उन्हें

ख़ुशबुओं को ख़्वाहिश-ए-सैल-ए-सबा देने से क्या

बन गई है बैअत-ए-बातिल असास-ए-वक़्अत 'रम्ज़'

अर्सा-ए-इम्काँ को ज़ेहन-ए-कर्बला देने से क्या

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