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मुहीत-ए-पाक पे मौज-ए-हुनर में रौशन हूँ - मोहम्मद अहमद रम्ज़ कविता - Darsaal

मुहीत-ए-पाक पे मौज-ए-हुनर में रौशन हूँ

मुहीत-ए-पाक पे मौज-ए-हुनर में रौशन हूँ

मैं ए'तिबार-ए-कफ़-ए-कूज़ा-ए-गर में रौशन हूँ

मैं हाशिया हूँ तिरे जल्वा-ज़ार-ए-हैरत का

मैं तेरे साथ तिरे बाम-ओ-दर में रौशन हूँ

मैं आप-अपना उजाला हूँ शब के दामन पर

मैं आप-अपनी दुआ-ए-सहर में रौशन हूँ

बुझा सकेगी न मुझ को हवा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ

मैं ताक़-ए-मा-हसल-ए-ख़ैर-ओ-शर में रौशन हूँ

उठा के ले गया मुझ को गिरोह-ए-नारा-कशाँ

मैं इंक़लाब की झूटी ख़बर में रौशन हूँ

वही है कोहनगी-ए-ज़ुल्मत-ए-ख़ला और मैं

नई उड़ान नए बाल-ओ-पर में रौशन हूँ

न जाने कब से हूँ आतिश-ब-जाँ तमाशा कर

तिरे लिए मैं तिरी रह-गुज़र में रौशन हूँ

चमक रही है उदासी मिरे हवाले से

मैं 'रम्ज़' अब भी किसी चश्म-ए-तर में रौशन हूँ

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