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लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से - मोहम्मद अहमद रम्ज़ कविता - Darsaal

लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से

लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से

इक इक रंग अलग कर सकता हूँ मैं ख़ुश्बू से

दोनों परेशाँ दोनों बोझल दोनों ही घनघोर

गहरा रिश्ता है बादल का तेरे गेसू से

मेरी पेशानी पर झलकी मेरे लहू की आग

रात-ढले कुछ चाँद सा उगना उस के पहलू से

अच्छी सूरत कोई अचानक सामने जब आ जाए

अपनी ही उँगली कट जाती है अपने चाक़ू से

हाथ को हाथ घनी ज़ुल्मत में जब न समझाई दिया

सम्त मिली है इक आवारा तन्हा जुगनू से

रात गए जब सो जाता है पानी गहरी नींद

नग़्मों की लहरें उठती हैं चलते चप्पू से

'रम्ज़' उठे हैं हम भी सँभाले अपना तीर कमान

हम को भी वहशत करनी है आज इक आहू से

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