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लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और - मोहम्मद अहमद रम्ज़ कविता - Darsaal

लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और

लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और

मेरी जस्त-ए-हुनर को लिख दे कोई सम्त-ए-मआनी और

बस्त-ओ-कुशाद-ए-बाज़ू क्या है साँसों की हलचल के सिवा

चाँद घिरा हो जब मौजों में बढ़ती है तुग़्यानी और

सेहर-ए-सवाद-ए-बहर-ओ-बर से कितने तूफ़ाँ उभरते हैं

अब इस शोरिश-ए-आब-ओ-गिल को मिट्टी और न पानी और

दश्त-ए-नवा पर छा जाएगा इस के बाद इक लम्बा सुकूत

मैं चौथा दरवेश हूँ मुझ से सुन लो एक कहानी और

मैं हूँ ग़ज़ाल-ए-मुश्क-गज़ीदा मेरा सफ़र है तीर के साथ

जब होती है तेज़ ये ख़ुश्बू बढ़ती जौलानी और

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