ख़ला में हो इर्तिआश जैसे कुछ ऐसा मंज़र है और मैं हूँ

ख़ला में हो इर्तिआश जैसे कुछ ऐसा मंज़र है और मैं हूँ

ये कर्ब-ए-तख़्लीक़ का धुआँ है जो मेरे अंदर है और मैं हूँ

हज़ार रंगों में अपनी लहरों पे शाम उभरती है डूबती है

चहार अतराफ़ आईना हैं वो ज़ुल्फ़-ए-अबतर है और मैं हूँ

मिरे सिवा कुछ नहीं कहीं भी अज़ल अबद एक ख़्वाब-ए-मस्ती

ज़मीं क़दम-भर है मेरे नीचे फ़लक निगह-भर है और मैं हूँ

सियाह गिर्दाब सी ख़ला में किसी को तो डूबना है आख़िर

सफ़र का साथी बस इक सितारा मिरे बराबर है और मैं हूँ

मुझे ख़बर है कि 'रम्ज़' कितनी समाअतें ज़ख़्म ज़ख़्म होंगी

लहू की हैं कुछ हिकायतें और ज़बान-ए-ख़ंजर है और मैं हूँ

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