बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले

बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले

रुक जाती हैं साँसें पल-भर शाम-ढले

खिल उठता है उस की याद का इक इक रंग

जाग उठते हैं क्या क्या मंज़र शाम-ढले

आग मिरे शिरयानों की लौ देने लगी

पिघला उस की अना का पत्थर शाम-ढले

गहरे होंगे सरगोशी के साए अभी

खुल जाएगा लिपटा बिस्तर शाम-ढले

किस को बताऊँ गुम है मिरी अपनी पहचान

मुझ से जुदा है मेरा पैकर शाम-ढले

इक आँधी सा घटता बढ़ता शोर-ए-नफ़स

भर जाता है ज़ेहन के अंदर शाम-ढले

दिल के इक गोशे में सिमट आते हैं 'रम्ज़'

सातों आसमाँ सातों समुंदर शाम-ढले

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