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अब वो मोड़ आया कि हर पल मो'तबर होने को है - मोहम्मद अहमद रम्ज़ कविता - Darsaal

अब वो मोड़ आया कि हर पल मो'तबर होने को है

अब वो मोड़ आया कि हर पल मो'तबर होने को है

देखना मंज़र नया दीवार दर होने को है

अब लहू का रंग गहरा है मिरी तस्वीर में

ऐसा लगता है कि क़िस्सा मुख़्तसर होने को है

उड़ चली है हर तरफ़ दामन में भर लेने की बात

क़तरा क़तरा उस के दरिया का गुहर होने को है

मैं भी देखूँ मुझ को मंज़र से हटा देने के बा'द

अब तमाशा कौन सा बार-ए-दिगर होने को है

फिर तराशी जाने वाली हैं चराग़ों की लवें

शाम होते होते गर्म ऐसी ख़बर होने को है

मुड़ के देखूँ तो अक़ब में कुछ नज़र आता नहीं

सामने भी गुम निशान-ए-रह-गुज़र होने को है

अब नई राहें खुलेंगी मुझ पर इम्कानात की

'रम्ज़' मेरे तन पे ज़ाहिर मेरा सर होने को है

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