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सर्दी-ओ-गर्मी-ओ-बरसात में आ जाता है - मोहम्मद आबिद अली आबिद कविता - Darsaal

सर्दी-ओ-गर्मी-ओ-बरसात में आ जाता है

सर्दी-ओ-गर्मी-ओ-बरसात में आ जाता है

मुझ से मिलने वो मज़ाफ़ात में आ जाता है

फ़स्ल-ए-गुल आने पे हो जाती है वीरानी दूर

दिल ख़राबे से ख़राबात में आ जाता है

कभी दानिस्ता अदा हो कभी ना-दानिस्ता

नाम तेरा मिरी हर बात में आ जाता है

जिस्म की नश्व-ओ-नुमा सूरत-ए-अशिया-ए-ज़मीं

रू-ए-ख़ूबाँ फ़लकिय्यतत में आ जाता है

इश्क़ का सब्र-ओ-तहम्मुल ही से क़ाएम है वक़ार

नाला फ़रियाद ख़ुराफ़ात में आ जाता है

ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ से होती है ख़ुदा की ख़िदमत

इश्क़ मख़्लूक़-ए-इबादात में आ जाता है

बंदा हो जाता है जब ख़ूगर-ए-मुश्किल 'आबिद'

ज़ाइक़ा तल्ख़ी-ए-हालात में आ जाता है

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