मिरा रफ़ीक़ पस-ए-जिस्म-ओ-जान ज़िंदा रहा
मिरा रफ़ीक़ पस-ए-जिस्म-ओ-जान ज़िंदा रहा
यक़ीन मुर्दा हुआ पर गुमान ज़िंदा रहा
जहाँ वो रहता था अब उस की याद रहती है
मकीं बग़ैर भी गोया मकान ज़िंदा रहा
बस उस के होने का एहसास है ग़रज़ कि ख़ुदा
वजूद वाहिमे के दरमियान ज़िंदा रहा
सुख़न से फ़ाएदा कुछ हो तो कोई बोले भी
मैं जिस जगह भी रहा बे-ज़बान ज़िंदा रहा
तमाम उम्र कटी बेबसी के आलम में
यूँ कहने के लिए बूढ़ा जवान ज़िंदा रहा
वो जब तलक रहा माहौल ख़ुश-गवार रहा
वो बज़्म में सिफ़त-ए-ज़ाफ़रान ज़िंदा रहा
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