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हाइल है हिजाब-ए-शर्म-ओ-हया दीदार तो क्या गुफ़्तार तो क्या - मोहम्मद आबिद अली आबिद कविता - Darsaal

हाइल है हिजाब-ए-शर्म-ओ-हया दीदार तो क्या गुफ़्तार तो क्या

हाइल है हिजाब-ए-शर्म-ओ-हया दीदार तो क्या गुफ़्तार तो क्या

मुबहम हैं इशारे सब उस के इंकार तो क्या इक़रार तो क्या

अल्ताफ़-ओ-करम की बारिश भी जो मुझ पे करे संसार तो क्या

जब उस ने न पूछा हाल मिरा दरयाफ़्त करें अग़्यार तो क्या

है दर-ब-दरी क़िस्मत मेरी शोरीदा-सरी तू ही ले चल

तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ के लिए गुलज़ार तो क्या कोहसार तो क्या

हैं अज़्म-ए-मुसाफ़िर के आगे ख़तरात मसाफ़त हेच बहुत

मंज़िल की तलब है दिल में अगर हो राहगुज़र दुश्वार तो क्या

तंग आ के मोहब्बत तर्क न की हम गरचे रहे नाकाम सदा

सरशार थे लज़्ज़त-ए-हसरत-ओ-ग़म से होते भला बेज़ार तो क्या

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