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मुसलमाँ देख कर अब दिल की हैरानी नहीं जाती - मोहम्मद अब्दुलहमीद सिद्दीक़ी नज़र लखनवी कविता - Darsaal

मुसलमाँ देख कर अब दिल की हैरानी नहीं जाती

मुसलमाँ देख कर अब दिल की हैरानी नहीं जाती

कुजा सीरत कि सूरत तक भी पहचानी नहीं जाती

हदीस-ए-ग़म सुनाने से परेशानी नहीं जाती

मगर कुछ लोग हैं जिन की ये नादानी नहीं जाती

जनाब-ए-शैख़ बोल उट्ठें ब-हर मबहस ब-हर मौक़ा

कि उन की ख़ू-ए-पिंदार-ए-हमा-दानी नहीं जाती

सुना सैल-ए-तमन्ना में हज़ारों शहर-ए-दिल डूबे

मगर फिर भी तमन्नाओं की तुग़्यानी नहीं जाती

सजाया हम ने तस्वीर-ए-बुताँ से ख़ाना-ए-दिल को

मगर बा-ईं हमा उस घर की वीरानी नहीं जाती

मोहम्मद-मुस्तफ़ा की शान-ए-रिफ़अत कोई क्या जाने

जहाँ वो हैं वहाँ तक फ़िक्र-ए-इंसानी नहीं जाती

किया लोगों ने गर्द-आलूद कितना चेहरा-ए-माज़ी

'नज़र' हैरत है फिर भी इस की ताबानी नहीं जाती

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