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फ़ित्ना-ज़ा फ़िक्र हर इक दिल से निकाल अच्छा है - मोहम्मद अब्दुलहमीद सिद्दीक़ी नज़र लखनवी कविता - Darsaal

फ़ित्ना-ज़ा फ़िक्र हर इक दिल से निकाल अच्छा है

फ़ित्ना-ज़ा फ़िक्र हर इक दिल से निकाल अच्छा है

आए गर हुस्न-ए-ख़याल उस को सँभाल अच्छा है

मेरे एहसास-ए-ख़ुदी पर न कोई ज़द आए

तू जो दे दे मुझे बे-हर्फ़ सवाल अच्छा है

आप मानें न बुरा गर तो कहूँ ऐ नासेह

साहब-ए-क़ाल से तो साहिब-ए-हाल अच्छा है

बे-ख़याली न रहे ख़ाम-ख़याली से बचो

दिल में बस जाए जो उन का ही ख़याल अच्छा है

तेरे रुख़ पर हो मसर्रत तो मिरा दिल मसरूर

तेरे चेहरे पे न हो गर्द-ए-मलाल अच्छा है

पुर्सिश-ए-ग़म भी नहीं नीज़ मुलाक़ात नहीं

आप को हम से ग़रीबों का ख़याल अच्छा है

कोई कहता है मुबारक हो तुझे दौर-ए-फ़िराक़

मैं समझता हूँ मगर रोज़-ए-विसाल अच्छा है

मुल्क-गीरी की हवस में हो तो फ़ित्ना ख़ुद ही

और फ़ित्ना को मिटाए तो क़िताल अच्छा है

बे-नियाज़-ए-ग़म-ए-उक़्बा जो 'नज़र' तुझ को करे

आल-ओ-औलाद वो अच्छी न वो माल अच्छा है

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