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आलूदा-ए-इस्याँ ख़ुद कि है दिल वो मान-ए-इस्याँ क्या होगा - मोहम्मद अब्दुलहमीद सिद्दीक़ी नज़र लखनवी कविता - Darsaal

आलूदा-ए-इस्याँ ख़ुद कि है दिल वो मान-ए-इस्याँ क्या होगा

आलूदा-ए-इस्याँ ख़ुद कि है दिल वो मान-ए-इस्याँ क्या होगा

जो अपनी हिफ़ाज़त कर न सका वो मेरा निगहबाँ क्या होगा

ज़ौक़-ए-दिल-ए-शाहाँ पैदा कर ताज-ए-सर-ए-शाहाँ क्या होगा

जो लुट न सके वो सामाँ कर लुट जाए जो सामाँ क्या होगा

ग़म-ख़ाना सनम-ख़ाना ऐवाँ या ख़ाना-ए-वीराँ क्या होगा

क़िस्सा है दिल-ए-दीवाना का हैराँ हूँ कि उनवाँ क्या होगा

जो सैर-ए-चमन को आता है वो तालिब-ए-गुल ही होता है

पूछे कोई उन नादानों से ख़ार-ए-चमनिस्ताँ क्या होगा

कुछ शिकवा नहीं इतना सुन ले ऐ मस्त-ए-सितम नावक-अफ़गन

दिल ही न रहेगा जब मेरा फिर तेरा ये पैकाँ क्या होगा

ऐ हँसने हँसाने वाले जा अफ़्सुर्दगी-ए-दिल बढ़ती है

जिस को हो अज़ल से निस्बत-ए-ग़म हँसने से वो ख़ंदाँ क्या होगा

आज अपनी 'नज़र' से वो देखें ये सिलसिला-ए-तूफ़ाँ आ कर

कल कहते थे जो हैराँ हो कर साहिल पे भी तूफ़ाँ क्या होगा

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