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दिल की मायूस तमन्नाओं को मर जाने दो - मोहम्मद अब्बास सफ़ीर कविता - Darsaal

दिल की मायूस तमन्नाओं को मर जाने दो

दिल की मायूस तमन्नाओं को मर जाने दो

दर्द को आख़िरी मंज़िल से गुज़र जाने दो

मैं ने कब साग़र-ओ-सहबा से किया है इंकार

नश्शा-ए-बादा-ए-हस्ती तो उतर जाने दो

जिस की ऐ अहल-ए-चमन की है लहू से ता'मीर

अब वो शीराज़ा-ए-गुलशन न बिखर जाने दो

चार तिनकों की भी ता'मीर है कोई ता'मीर

फ़स्ल-ए-गुल आएगी रख लेंगे बिखर जाने दो

लज़्ज़त-ए-ग़म से तड़पने में मज़ा आता है

लज़्ज़त-ए-ग़म से तबीअ'त मिरी भर जाने दो

इंक़लाब आएगा कोई कि बहार आएगी

ख़ाल-ओ-ख़द चेहरा-ए-गीती के निखर जाने दो

हम से बदले हुए तेवर हैं ज़माने के 'सफ़ीर'

उस ने देखी है हमारी भी नज़र जाने दो

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