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बड़ी इबरत की मंज़िल है ज़मीं गोर-ए-ग़रीबाँ की - मोहम्मद अब्बास सफ़ीर कविता - Darsaal

बड़ी इबरत की मंज़िल है ज़मीं गोर-ए-ग़रीबाँ की

बड़ी इबरत की मंज़िल है ज़मीं गोर-ए-ग़रीबाँ की

यहाँ अपनी हक़ीक़त पर नज़र पड़ती है इंसाँ की

यही धुन थी कहीं मेरा दिल-ए-गुम-गश्ता मिल जाए

इसी वहशत में बरसों ख़ाक छानी कू-ए-जानाँ की

जहाँ नब्ज़ें रुकीं दिल सर्द हो दो हिचकियाँ आईं

समझ लीजे कि मंज़िल आ गई गोर-ए-ग़रीबाँ की

न जाएगा मेरे दिल से ख़याल-ए-अबरू-ए-दिलबर

कि तेग़ों ही के साए में तो है जन्नत मुसलमाँ की

फ़ना-ए-इश्क़ हो कर ज़िंदा-ए-जावेद होता है

मिटा कर देखिए हस्ती नहीं मिटती है इंसाँ की

यहाँ रोने से हो मक़्सूद हासिल ग़ैर-मुमकिन है

चलो अब शमएँ भी बुझने लगीं गोर-ए-ग़रीबाँ की

'सफ़ीर' इक ख़्वाब थी ये चंद रोज़ा ज़िंदगी अपनी

अजल से मिल गई ताबीर इस ख़्वाब-ए-परेशाँ की

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